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Founder Editor(Print): late Shyam Rai Bhatnagar (journalist & freedom fighter) International Editor : M. Victoria Editor : Ashok Bhatnagar *
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28 अग॰ 2011

घनचक्कर लोकतंत्र

लोकतंत्र के दिल में है एक कैंसर

Source: एम.जे. अकबर

इस बात के शानदार तर्कसंगत कारण हैं कि भ्रष्टाचार पर बहस क्यों घनचक्कर बनकर रह गई है। क्योंकि हर कोई भ्रष्टाचार तो हटाना चाहता है, पर इसका संपूर्ण नाश नहीं चाहता। और जैसा कि भाजपा चाहेगी कि हर जगह ईमानदारी हो, पर कर्नाटक के खान मालिकों के लिए एक छोटा सा हाशिया छूटा रहे।

कांग्रेस स्वच्छ भारत चाहती है, जिसका विस्तार हर गांव के हर कुएं तक हो, लेकिन यह इतना शुद्ध भी हो कि मंत्रियों या इसके पवित्र पशुओं की धनलोलुपता रूपी प्यास ही बुझा सके- इन दिनों पशुओं के झुंड में एक पवित्र सांड़ भी शामिल हो गया है। कोई भी राजनीतिक दल इस प्रलोभन से सचमुच अछूता नहीं है। एक क्षेत्रीय नेता, जिनकी भाव-भंगिमाएं ऐसी होती हैं, मानो ईमानदारी के साक्षात अवतार हों, ने ऐसे व्यवसायी को राज्यसभा में भेजा, जिसकी चर्बी उसके बैंक खाते तक ही सीमित नहीं है।

दरअसल, हमारे लोकतंत्र के हृदय में एक कैंसर घर कर गया है: हमारी निर्वाचन प्रणाली वैध कोषों की बजाय काले धन से चलती है। नेताओं के तहत आने वाले संस्थान यह जानते हैं और अपनी व्यवस्थाएं जमा लेते हैं। सीबीआई जब अपनी पसंद के मौसमी लक्ष्य तक पहुंचना चाहती है, तो बहुत उग्र और कठोर हो सकती है, लेकिन इसे दिल्ली की झुग्गी बस्तियों में प्रत्येक झोपड़ी से हर महीने डेढ़ सौ रुपए वसूलने वाले अपने उन साथी पुलिसियों पर लगाम कसने में कोई दिलचस्पी नहीं, जो यह पक्का करने के पैसे लेते हैं कि जलआपूर्ति में बाधा नहीं आएगी। आप जिधर भी निगाह डालें, नकद लेन-देन के बोटोक्स इंजेक्शन के कारण प्रशासन फूला हुआ नजर आएगा।

अकेला शख्स जो भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहता है, अन्ना हजारे हैं। जैसा कि उन्होंने एक बार बड़े चटखारेदार अंदाज में इंगित किया था कि वे तो चुनाव लड़ने का खर्च ही नहीं उठा सकते। यह बहस संकट की जड़, यानी चुनावी भ्रष्टाचार पर ध्यान केंद्रित किए बगैर समाधान सुझाने वाले अनगिनत प्रस्तावों के बीच डगमगा रही है।

राजनीतिक जमात कारोबारियों, जजों, नौकरशाहों (जिला स्तर से नीचे) समेत उन तमाम लोगों के भ्रष्टाचार की जांच के लिए जुट गई है, जिनके बारे में आप सोच सकते हैं। लेकिन जब स्वयं के अवलोकन की बात आती है, तो इकट्ठा हुई जमात छितराने लगती है। निस्संदेह, यह ऐसे लोकपाल पर विमर्श नहीं करेगी, जिसके पास राजनीति में धन के प्रवाह की पड़ताल करने की ताकत हो।

बहाने तो यहां हमेशा मौजूद रहते हैं, विशेषकर निर्वाचन आयोग, जो कथित तौर पर सत्यनिष्ठा का संरक्षक है। यह उसी तरह है, जैसे कहा जाता है कि न्यायपालिका का अस्तित्व है। पुलिस और जज अपराध रोकने के लिए बनाए गए थे। अगर उन्होंने ऐसा किया होता, तो आज कोई बहस ही नहीं होती। निर्वाचन आयोग अपने इरादों में पूरी पारदर्शिता से गंभीर है, लेकिन चुनौतियां इसे अधिकार में मिली क्षमताओं से कहीं बढ़कर हैं।

अगर आप इस बारे में हल्का सा अंदाजा ही चाहते हैं कि राजनीति में किस स्तर तक धन व्याप्त है, तो नेताओं के प्रकाशित बयानों को ही पढ़ लीजिए। आंध्रप्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष ने दावा किया है कि जगन रेड्डी से जुड़ने के लिए जिन विधायकों ने उनकी पार्टी छोड़ी, उनमें से हर को नकद 10 करोड़ रु. दिए गए हैं। इसे तथ्य की तरह मत देखिए। यदि नकदी ही वफादारी की अकेली गारंटी होती, तो कांग्रेस में इतनी क्षमता है कि हर विपक्षी पार्टी को खरीद ले। हां, यह दावा दर्शाता है कि किस श्रेणी की पेशकाश होती हैं।

मुझे उम्मीद है, किसी को भी इस बात पर भरोसा नहीं होगा कि चुनावी भ्रष्टाचार का उपचार राज्य द्वारा इसके लिए कोष बनाए जाने में निहित है। यह तो करदाताओं के धन को कभी तृप्त होने वाले कुंड में भरते जाना होगा। यह बजटों को बढ़ाएगा, कि उन्हें कम करेगा।

अन्ना हजारे के संकल्प और साहस ने कांग्रेस को अशक्त तो किया है, लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन अस्थिर नहीं हुआ है। गृहमंत्री पी. चिदंबरम के नेतृत्व में कांग्रेस के जवाबी हमले के तहत अन्ना को तिहाड़ जेल पहुंचा दिया गया, तब पता चला कि उसकेपीड़ितको लोहे को भी सोने में बदल देने वाली कीमियागरी आती है। कांग्रेसी व्याकुलता इस बात से मापी जा सकती है कि ताजा बहस में सबसे तेज शोर चिदंबरम की मौन ध्वनि का है। कांग्रेस को यह समझ पाने में हैरानी भरे कुछ पल लगे कि इस आंदोलन की पहुंच सतह पर हो रही ट्विटरी गतिविधियों से कहीं ज्यादा गहरी है।

गरीब जानते हैं कि अन्ना हजारे उनमें से ही एक हैं, हालांकि उनके सहयोगी ऐसे हो भी सकते हैं और नहीं भी। उन्हें इस बात से लेना-देना नहीं कि उनके सलाहकार कौन हैं। वे उनके पीछे जुट चुके हैं और यही उनके लिए पर्याप्त है। अन्ना की निजी साख पर बट्टा लगाने की कोशिश के चलते कांग्रेस ने ज्यादा सहानुभूति खोई। परंतु, विसंगति है कि यह मतदाताओं पर अन्ना-असर का ही डर है, जो सत्तारूढ़ गठबंधन की सलामती सुनिश्चित कर रहा है। अत:, अन्ना सरकार को हिला भी रहे हैं और उसकी निरंतरता भी पक्की कर रहे हैं।

प्रधानमंत्री को एक अलग सवाल का जवाब जरूर देना चाहिए: सरकार चलाने की क्षमता के बगैर वे कितने लंबे समय तक पद पर बने रह सकते हैं? वे अपना आखिरी चुनाव लड़ चुके हैं। वे चुनावी मजबूरियों और समझौतों से मुक्त हैं। यह अमेरिकी राष्ट्रपति के दूसरे कार्यकाल की तरह है, जहां उसे पार्टी को तो दिमाग में रखना पड़ता है, लेकिन ज्यादा बड़े सम्मोहन, यानी पुन: चुनाव लड़ने की जरूरत जैसी कोई बात नहीं होती। इस सुअवसर का ज्यादातर हिस्सा खो दिया गया है। क्या बाकी बचा हिस्सा भी गंवा दिया जाएगा?

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अन्ना की जीत पर विशेष टिप्पणीः इसी क्षण की तो प्रतीक्षा थी देश को

Source: श्रवण गर्ग

विक्रम संवत 2068 के भादो मास के कृष्ण पक्ष की तेरस या फिर इक्कीसवीं शताब्दी के वर्ष 2011 के 27 अगस्त के शनिवार का दिन स्वतंत्र भारत के इतिहास का एक अप्रतिम अध्याय बनकर एक सौ बीस करोड़ नागरिकों के हृदयस्थल पर अंकित हो गया है।
इस अध्याय में लिखा जाएगा कि इस दिन दिल्ली में रामलीला मैदान पर बारह दिनों से उपवास पर बैठे 74 वर्षीय किशन बाबूभाई हजारे उर्फ अन्ना नाम के एक ईमानदार सेवक की नैतिक ताकत का सम्मान करते हुए देश की सर्वोच्च संस्था संसद ने अपने फैसलों में जनता की सीधी भागीदारी को हमेशा-हमेशा के लिए सुनिश्चित कर दिया। और इस प्रकार देश की कमजोर से कमजोर सड़क और पगडंडी भी भारत राष्ट्र की सबसे मजबूत इमारत के साथ जुड़ गई।
राष्ट्र के जीवन का यह अद्भुत, अद्वितीय और ऐतिहासिक दिन था कि महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण के बाद अन्ना हजारे नाम के एक और निहत्थे नागरिक ने अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए उस क्रांतिकारी परिवर्तन को अंजाम दिया जिसकी दुनिया के और किसी भी हिस्से में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। क्या कोई कभी सोच भी सकता था कि संसद का एजेंडा जनता की ताकत तय करेगी, जनप्रतिनिधियों की संख्या और पार्टियों की ताकत नहीं।
सरकार और प्रतिपक्ष का एक नया चेहरा इस जनांदोलन के जरिए देश को प्राप्त हुआ है जो कि कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है। हम उम्मीद कर सकेंगे कि हमारे शासक और राजनीतिक दलों के आका अब जनता के साथ उसके मालिकों के बजाए सेवकों की तरह व्यवहार करने लगेंगे। जिस संसद की अवमानना का खौफ दिखाकर जनता की ताकत को कमजोर करने की कोशिश की जा रही थी वही संसद अपने सदस्यों द्वारा अन्ना के प्रस्तावों पर मेजें थप-थपाकर सर्वसम्मति से स्वीकृति दे देने के बाद पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा ताकतवर होकर उभरी है। अपने प्रतिनिधियों के प्रति जनता का यकीन और ज्यादा मजबूत ही हुआ है।
सत्ता के अहिंसक और शांतिपूर्ण हस्तांतरण की यह गूंज अब दूर-दूर तक सुनाई देगी। हमारे पड़ोसी देशों और दुनिया के दूसरे मुल्कों की जनता को अब ताकत मिलेगी कि सत्ता में जनता की भागीदारी को सुनिश्चित करवाने का वह रास्ता अभी गुम नहीं हुआ है जिसे गांधी ने ईजाद किया था। शर्त केवल यही है कि परिवर्तन की अगुवाई करने वाले की आंखों में बेईमानी का काजल नहीं बल्कि ईमानदारी का साहस होना चाहिए। अन्ना ने सर्वथा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होने वाली अपनी बहादुर टीम के जरिए ऐसा सिद्ध करके भी दिखा दिया।
प्रधानमंत्री और देश की संसद अन्ना के साहस को पहले से सलाम कर चुकी है, अब दुनिया का नेतृत्व उसकी तैयारी कर रहा है। अन्ना का अनशन आज समाप्त हो जाएगा और उनके स्वास्थ्य की प्रार्थना में उठे हाथ और तमाम चिंताएं प्रसन्नता के आंसुओं में तब्दील हो जाएंगी। पर अन्ना का केवल अनशन खत्म हो रहा है, उनकी लड़ाई नहीं। वह चलती रहने वाली है, लोकपाल बिल पारित होने तक। उसके बाद भी।
अपने अनशन के दौरान अन्ना कई बार कह चुके हैं : अन्ना रहे रहे, मशाल जलती रहना चाहिए। प्रधानमंत्री का पत्र विलासराव देशमुख के हाथों प्राप्त करने के बाद अन्ना ने कहा भी है कि वे अभी आधी लड़ाई जीते हैं, पूरी जीत होना अभी बाकी है। थोड़ी बधाई तो डॉ. मनमोहन सिंह के लिए इसलिए भी बनती है कि बारह दिनों की प्रतीक्षा के बाद जिस क्षण की वे प्रतीक्षा कर रहे थे वह उन्हें अनशन समाप्त करने की अन्ना की घोषणा के साथ शनिवार की रात नौ बजे प्राप्त भी हो गया और संसद का सम्मान भी कायम रखने में वे कामयाब हो गए।

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जेपी, वीपी, अन्ना- तीन जनक्रांतियां, एक उद्देश्य और तीनों की ताकत- आम आदमी

Source: कल्पेश याग्निक

आम आदमीके खास हो जाने का यह तीसरा ऐतिहासिक अवसर है। अवसर है, यह बताया 1974 में जेपी, 1987 में वीपी और आज अन्ना ने। तीनों का उद्देश्य भ्रष्टाचार से लड़ना। तीनों की ताकत- आम आदमी।

देश के बनने और बढ़ने में कितनी जद्दोजहद है, तीनों जनक्रांतियों के नेतृत्व का मैदानी संघर्ष कैसा था? भास्कर की कोशिश है कि नई पीढ़ी यह सब जान सके, इसलिए कल्पेश याग्निक का यह अध्ययन-

सबसे बड़ी जनक्रांति तो आजादी की लड़ाई
दुनिया की सबसे बड़ी जनक्रांति हमारी आजादी की लड़ाई ही थी। महात्मा गांधी के नेतृत्व में लाखों लोग अहिंसक आंदोलन में उतरे। उनकी एक आवाज पर लोग सड़कों पर आ जाते। वे उपवास करते तो आधा देश उपवास करता। उनके बारे में महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था - ‘आने वाली पीढ़ियों को यकीन नहीं होगा कि हाड़ मांस से बना कोई ऐसा व्यक्ति भी कभी इस धरती पर पैदा हुआ था।’

संपूर्ण क्रांति : जेपी: भ्रष्टाचार सबसे बड़ा रोग, तो इलाज में धर्य कैसा?(1974-75)
लक्ष्य व्यवस्था परिवर्तन
लाखों लोग जुड़े तो उन्होंने सत्ता परिवर्तन का लक्ष्य भी जोड़ दिया
माध्यम -दमन और शोषण के विरुद्ध संपूर्ण जनक्रांति
उन्हीं के शब्दों में - राजनैतिक नेतृत्व उच्च नैतिकता का पालन करे तो भ्रष्टाचार मिट जाएगा। गरीबी और बेकारी मिटाने के लिए शिक्षा में आमूल बदलाव करने होंगे। अब यदि रोग का पता चल गया है तो देशवासी इसका इलाज करने में धैर्य क्यों रखें?
ताकत
छात्र: बिहार के छात्रों ने जेपी के पीछे पहाड़ सा समर्थन खड़ा कर दिया। गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन चला रहे छात्रों ने जेपी से नेतृत्व करने की मांग की। बस चल पड़ा नौजवानों का कारवां।
शख्सियत
‘त्याग’ के लिए ख्यात। उद्भट विद्वान। प्रखर गांधीवादी। स्वतंत्रता सेनानी। जो मिलता, उसमें ऊर्जा भर देते।
डॉ. राममनोहर लोहिया के शब्दों में- ‘एकमात्र जेपी हैं जो सारे देश को हिला सकते हैं।’
..और अंजाम
20 माह के आपातकाल के बाद अत्याचार के किस्सों के साथ हुए आम चुनाव में कांग्रेस हारी, हारी और हारती चली गई। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने देश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के।
वैसे..झगड़ों से यह 3 साल ही चली।
किंतु : यह स्वतंत्र भारतीय राजनैतिक इतिहास का सबसे बड़ा बदलाव रहा। इसने लोगों की ताकत को साबित किया। व्यक्ति विशेष या एक दल आधारित तानाशाही को चूर-चूर कर दिया।
इस तरह यह देश के लिए बहुत ही अच्छा बदलाव रहा।
टर्निग प्वाइंट

हजारों पुलिस जवानों ने हैरत से देखा कि कृशकाय, असहाय सा दीख रहा वह बुजुर्ग जीप से उतरा और ‘क्रांति’ रोकने की चुनौती देने लगा। दो ही सहयोगी थे जबकि साथ में। शासकों के आदेश पर अत्याचार को उतारू वर्दीधारियों ने उस महान गांधीवादी पर लाठियां बरसाईं।

अपने नेता की निडरता और दृढ़ता को देख, तब तक सोच में पड़े हजारों समर्थक आंदोलन के लिए टूट पड़े। गर्व से लाठियां खाईं। और दे डाला अगले दिन जेपी को असाधारण नाम लोकनायक। - 4 नवंबर 74 की पटना रैली।
सिलसिले: एक के बाद एक धमाकेदार घटनाएं जो ले आईं लक्ष्य को पास।

कहां तो जनआंदोलन बिहार की अब्दुल गफूर सरकार के विरुद्ध शुरू हुआ था, कहां जेपी ने अपने गजब के विजन से इसे राष्ट्रीय ‘संपूर्ण क्रांति’ में बदल दिया।

उधर रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की रहस्यमय हत्या। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर गंभीर आरोप। वहीं जॉर्ज फर्नाडीस ने जबर्दस्त रेल हड़ताल करवा दी, जो विश्व की सबसे बड़ी हड़ताल मानी जाती है। इंदिरा ने 20 हजार गिरफ्तारियां कर उसे तुड़वा दिया।

फिर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला। इंदिरा की संसद सदस्यता अवैध घोषित। 25 जून ’75 बना ऐतिहासिक दिन। रामलीला मैदान। एक लाख से भी ज्यादा लोग। जेपी के लिए जुटे। उसी रात आपातकाल घोषित।
बोफोर्स अभियान : वीपी- आप चाहे मुझे मार दें मैं लड़ता रहूंगा

लक्ष्य : सत्ता परिवर्तन(1987-89) यह आंदोलन पूरी तरह राजनीतिक, पहले सत्ता बदलेगी फिर व्यवस्था

माध्यम : सर्वोच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के विरुद्ध राजनीतिक जनमोर्चा।

नारा था : मैं आपको स्वर्ग का वादा तो नहीं करता। पर नर्क से लड़ाई का दावा जरूर करता हूं।
ताकत
मिडल क्लास:मध्यम वर्गीय परिवार देश की रीढ़ हैं। चारों ओर बेईमानी से त्रस्त यह तबका वीपी सिंह में अपनी खुद की झलक पाने लगा था। फिर क्या था, दूसरे दर्जे में सफर कर स्टेशन पर उतरने वाले वीपी का स्वागत करने तो दस-पंद्रह लोग ही पहुंचते, किंतु 40 वर्ष से ऊपर के हजारों लोग उनकी सभा में जुटते। फिर आए जोशीले युवा।
सिलसिले: बोफोर्स घोटाले के लिए प्रधानमंत्री को कठघरे में खड़े कर चुके वीपी ने लिफाफे पर लिखा- प्रधानमंत्री। और भीतर रखा त्यागपत्र। फिर एक के बाद एक विस्फोटक घटनाएं। तीन माह में राजीव सरकार के पांच मंत्रियों के इस्तीफे। मुजफ्फरनगर रैली में जुटे हजारों लोग। फिर तो गांव-गांव में लोग कहते बोफोर्स यानी घोटाला, गली-गली में शोर है..
शख्सियत
‘ईमानदारी’ की धाक। धीरूभाई अंबानी, अमिताभ बच्चन सहित प्रधानमंत्री के कुछ निजी मित्रों तक पर आयकर छापे डलवाए। कवि। चित्रकार। गहन अध्येता। सख्त प्रशासक की छवि। खुद की कविता, जो बाद में खूब चली, उनका स्वभाव बताती है-

‘तुम मुझे क्या खरीदोगे, मैं तो मुफ्त हूं..’
..और अंजाम

दो साल के संघर्ष और कई पार्टियों से बने मोर्चे ने कांग्रेस को हरा दिया। मतदान के दिन रविशंकर के चर्चित काटरून से समझा जा सकता है कि क्या रहा होगा- राजीव एक ज्योतिषी से पूछ रहे हैं- क्या कोई सहानुभूति लहर? ज्योतिषी कहता है- निश्चित.. लेकिन चुनाव के बाद!

वीपी प्रधानमंत्री बने देश की पहली अल्पमत सरकार के। इस गैर-कांग्रेसी सरकार का भी पतन जल्द हो गया। बोफोर्स मामले में भी कुछ नहीं हुआ। मंडल आयोग की सिफारिशें मानने पर देश में सवर्ण बनाम पिछड़ों का जहर फैला।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध अनशन : अन्ना- युवा जागा है दूसरी आजादी के लिए..(2010-11)

लक्ष्य : जन लोकपाल कानून

हजारों लोग जुड़े तो उन्होंने व्यवस्था परिवर्तन का लक्ष्य भी जोड़ दिया। माध्यम- अनशन, भ्रष्टाचार से लड़ाई का एक ऐसा उपाय बताना जिसे इस्तेमाल किया जा सके- जनलोकपाल। उन्हीं के शब्दों में- यह दूसरी आजादी की लड़ाई है।

ताकत
सिविल सोसायटी: महाराष्ट्र में बेबस किसानों की लंबी लड़ाई लड़ते रहे अन्ना जब जनलोकपाल बिल के लिए टूट पड़े तो शुरुआत में उनके साथ अधिकतर बुद्धिजीवी, मेगसेसे अवार्ड जीते कार्यकर्ता, शीर्ष वकील, डॉक्टर, प्रोफेसर व रिटायर्ड अफसर थे। बाद में युवा भी आए- अब सारा देश।
सिलसिले: विश्व इतिहास में ही किसी एक सरकारी फैसले से सबसे बड़ी रकम- 1 लाख 75 हजार करोड़ रु.- का 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला। बाकायदा ऑडिट रिपोर्ट में आने से देश सकते में था कि एक-एक करके कई कांड सामने आने लगे।
इसी दौरान सरकारी लोकपाल कानून का मसौदा विवादों में पड़ा। अचानक सारे देश में लहर सी उठी। सोशल नेटवर्किग साइट्स और मोबाइल मैसेजों की बाढ़ में- सरकारी लोकपाल कानून बहा भले न हो, गीला होकर जरूर गलने लगा।
..और अंजाम
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने संपादकों से कहा कि वे ‘स्वयं लोकपाल की हद में प्रधानमंत्री को रखने के पक्ष में हैं’ किंतु मंत्रिमंडल में सोच अलग-अलग हैं। अन्ना के आंदोलन के कारण उन्हें जनभावनाओं का आदर करना पड़ा। विधेयक पेश हो चुका है। सरकार का।
भेजा जा चुका है संसद की स्थाई समिति को। इससे किसी तरह की उम्मीद नहीं बनती। कमजोर कागज है यह बिल। जनांदोलन के चलते सरकार राजी हुई जनलोकपाल पर विचार करने पर भी। देखना होगा हर दिन अपना स्टैंड बदलने वाली सरकार कब तक कायम रहती है अपने वादे पर।
शख्सियत
‘ नैतिकता’ का प्रतीक। सहज। सरल। बच्चों सी भोली मुस्कान जिससे लोग जुड़ते हैं। भ्रष्टाचार पर कठोर।
जुझारू व्यक्तित्व। हमेशा दूसरों के लिए लड़ना। अन्ना यानी गांव-गांव में भरोसे का दूसरा नाम।
‘आप मेरा सिर कलम कर सकते हैं लेकिन झुका नहीं सकते। जब तक भारत भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो जाता, मेरा संघर्ष जारी रहेगा।’
राज पर भारी लोक
अप्रैल से चले इस आंदोलन से दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र के जन को अपनी ताकत का अहसास हुआ। यह स्थापित हुआ कि जनता एकजुट हो तो सरकार उन पर कोई मनमर्जी नहीं थोप सकती। पहली बार जनांदोलन का जोर सत्ता परिवर्तन पर नहीं, व्यवस्था परिवर्तन पर था।
यह आंदोलन पूरी तरह अ-राजनीतिक था। रामलीला मैदान के मंच से दूर रखे गए नेता देश भर में उमड़े जन-ज्वार को टीवी पर ही देखते रहे। मैदान पर अन्ना के समर्थन में जनसंगठनों के नुमाइंदों ने तो अपनी मौजूदगी दर्ज कराई ही, बॉलीवुड की हस्तियां भी खुद को यहां आने से नहीं रोक पाईं।
अपने भाषणों में भ्रष्टाचार के बहाने इन्होंने समूची व्यवस्था को कठघरे में खड़ा किया। लंबे अरसे बाद किसी मुद्दे पर ऐसा स्वत:स्फूर्त और बेहद अनुशासित जनसमर्थन देश में देखा गया। सोशल नेटवर्किग साइट्स और एसएमएस के जरिए भी आंदोलन को ऊर्जा मिली।
तुलना नहीं सिर्फ अध्ययन
यह तीनों जनक्रांतियां गांधीवादी तरीके से ही लड़ा गईं। लेकिन इनकी महात्मा गांधी के आंदोलन से तुलना नहीं हो सकती है क्योंकि महात्मा गांधी का आंदोलन विदेशियों की गुलामी के खिलाफ था जबकि ये क्रांतियां अपने ही शासन के खिलाफ की गईं।
यूं तो इन तीनों की तुलना आपस में भी नहीं हो सकती क्योंकि भले ही वे भ्रष्टाचार के खिलाफ थीं लेकिन उनके लक्ष्य अलग-अलग थे।

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संसद के शिखर पर नई पताका


संपादकीय

आलोक
मेहता

हजारे के आंदोलन में उम़ड़े जनसैलाब और भ्रष्टाचार के विरुद्ध गहरे आक्रोश से सचमुच सरकार और संसद हिल गई। लेकिन लोकतंत्र के सबसे ब़ड़े मंदिर का शिखर और संविधान की दीवारें सुरक्षित बच गईं। बाबरी मस्जिद गिराने के दौरान बनाए गए उन्माद की तरह कुछ लोगों ने जनता को भ़ड़काने की कोशिश भी की। पिछले १२ दिनों में रामलीला मैदान से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में तथा टेलीविजन चैनलों पर भारतीय संसद की सर्वोच्चता को चुनौती दी गई। इसके बावजूद अण्णा आंदोलन की पहली सफलता संसद की गरिमामय ऐतिहासिक पहल से ही मिल सकी। इसमें कोई शक नहीं कि भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए सशक्त लोकपाल की संवैधानिक व्यवस्था जल्द से जल्द होनी चाहिए। राजनीतिक खींचातानी और ढुलमुल रुख के कारण पिछले ४० वर्षों की तरह इस बार भी लोकपाल विधेयक अधर में लटका दिखने लगा था। सरकार द्वारा प्रस्तुत लोकपाल विधेयक में व्यापक बदलाव, संशोधन तथा अण्णा टीम के जनलोकपाल विधेयक को ही हूबहू स्वीकृति की माँग पर राजनीतिक-सामाजिक तनाव पराकाष्ठा पर पहुँच गया था। जनता जागरूक हुई, लेकिन आशंकित, भ्रमित और अति आशान्वित भी थी। सरकार से अधिक जनता ने अद्भुत धैर्य का प्रदर्शन किया। भारतीय जनता पार्टी अथवा प्रतिपक्ष के दल स्वाभाविक रूप से कठघरे में ख़ड़ी सरकार को विचलित करने की कोशिश करते रहे। लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसे जायज ही कहा जाएगा। अब प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर अण्णा टीम की ओर से आए प्रस्तावों पर संसद की सहमति के साथ स्थायी समिति में गंभीरता से विचार होगा। अरुणा रॉय, जयप्रकाश नारायण, टीएन शेषन के लोकपाल विधेयकों के प्रारूपों पर भी चर्चा होगी। मतलब असली समुद्र मंथन के बाद इसी संसद से भ्रष्टाचार की बीमारी के लिए अमृतनुमा उपचार कर सकने वाली शक्तिशाली लोकपाल व्यवस्था लाए जाने का विश्वास किया जाना चाहिए। मनमोहनसिंह, प्रणब मुखर्जी, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, राहुल गाँधी, शरद यादव, लालूप्रसाद यादव, गुरुदास दासगुप्ता, सीताराम येचुरी जैसे अनेक नेताओं की कमजोरियाँ गिनाने के साथ यह स्वीकारना होगा कि ऐसे कंधों के बल पर ही लोकतंत्र की सवारी आगे ब़ढ़ने वाली है। भ्रष्टाचार विरोधी अण्णा आंदोलन को मिला व्यापक जनसमर्थन राजनीतिक दलों के लिए भी ब़ड़ा सबक है। उन्हें अपने दामन को साफ करने के साथ संगठनों का अधिक कायाकल्प करना होगा। आजादी के बाद ६४ वर्षों में कई अवसरों पर देश के डूबते हुए दिखने के दौर आए, लेकिन अगले ही क्षण अधिक सशक्त और चमकता दिखाई दिया। इस आंदोलन के बाद भी लोकतंत्र के मंदिर संसद के शिखर पर नई पताका फहराती दिख रही है। इसकी आन और शान को बचाने की जिम्मेदारी किसी एक सरकार, संगठन या पार्टी की नहीं, हर नागरिक की रहेगी।


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