जयपुर, 15 मई। कड़े सरकारी इंतजाम, सरकारी दावों के बीच राज्य भर में इस बार भी व्यापक पैमाने पर बाल विवाह हुए और सरकारी अमला इन्हें टुकुर-टुकुर निहारने से ज्यादा कुछ नहीं कर सका। स्थानीय राजनीतिज्ञों की शह के चलते जिन कंधों पर इन बाल विवाहों को रोकने की जिम्मेदारी थी खामोश निगाहों से वे अपने सामने शारदा कानून की धज्जियां उड़ते देखते रहे ।़सरकारी मशीनरी के इस असहयोगात्मक रवैये के बावजूद इलेक्ट्रॉनिकचैनल कीएक अति सक्रिय पत्रकार की सजगता से चित्तौडग़ढ़ जिले के सांपलियां गांव में चार नाबालिग बच्चों की शादी करवाए जाने से पहले ही मामले का भांड़ाफोड़ हो गया। प्रकरण का सबसे शर्मनाक पहलू एक जनप्रतिनिधि का पर्दे के पीछे से इस सामूहिक बाल विवाह की सभी व्यवस्थाएं अपने हाथ में रखना है।
स्थानीय थाना पुलिस को पुलिस कंट्रोल से सूचना मिलने के डेढ़ घंटे बाद महज लकीर पीटने के लिए मौके पर पहुंचना सरकारी अमले का कानून विरोधी मानसिकता का स्पष्ट प्रमाण माना जा सकता है। बाल विवाह रोकने के सरकारी दावों की पोल खोलते इस प्रकरण से रूबरू होकर आईं इंडिय़ा टीवी की वरिष्ठ संवाददाता संगीता प्रणवेन्द्र सरकारी अमले की मानसिकता से बेहद आहत हैं। दलित परिवारों के अभावग्रस्त जीवन को और भी दारुणिक बना रहे हालातों से बेहद आहत संगीता प्रणवेन्द्र ने बताया कि 6 वर्ष, 9 वर्ष, 11 वर्ष और 14 वर्ष की चार बहनों की आखातीज पर शादी होने की इतला पर टीवी रिपोटर्र अपनी टीम के साथ चित्तौडग़ढ़ पहुंची। अपनी सजगता का परिचय देते हुए प्रणवेन्द्र ने सर्वप्रथम पुलिस को सूचना दी। लेकिन एक स्थानीय जनप्रतिनिधि के प्रभाव के कारण पुलिस ने मौके पर पहुंचना उचित नहीं समझा। सारा काम निपट जाने के बाद थाना पुलिस ने मौके पर दस्तक दी।
पुलिस-प्रशासन के इस कारनामे के बारे में जब चैनल रिपोटर्र ने उच्च स्तर पर मय तथ्यों के जानकारी दी तब स्थानीय स्तर पर हड़कंप मच गया। आनन-फानन में संबंधित पटवारी को निलंबित किया गया लेकिन बड़े ओहदेदार फिर भी साफ बच निकले।
स्थानीय स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका भी इस प्रकरण बेहद दागदार नजर आई। कानून और समाज विरोधी इस कृत्य में कार्रवाई होने के बाद भी वहां की कथित महिला संगठनों की ओर से मामले को रफा-दफा करवाने के लिए आखिरी समय तक प्रयास किया गया।
खेलने-खाने की उम्र में जब छोटे बच्चे शादी के बंधन का ठीक से अर्थ भी नहीं जानते हो उम्र के ऐसे दौर में उनकी शादी करना कहां तक न्यायोचित है? इस सीधे सवाल पर सरकारी अमले का मौन जमीनी हकीकत को साफ बयां करता नजर आता है।
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