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14 फ़र॰ 2012

जब कैमरे से गालिब की तस्वीर उतारी गई

قید حیات و بند غم ، اصل میں دونوں ایک ہیں
موت سے پہلے آدمی غم سے نجات پائے کیوں؟

(क़ैदे-हयात, बंदे-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं,
मौत से पहले आदमी गम से निजात पाये क्यों?)

The prison of life and the bondage of grief are one and the same
Before the onset of death, how can man expect to be free of grief?

आज महान शायर गालिब की 143 वीं पुण्यतिथि है। अक्सर उनकी जन्मतिथि या पुण्यतिथि के बहाने उनकी शायरी के बारे में बहुत सारी बातें की जाती हैं, लेकिन उनके जीवन से जुड़े छोटे-छोटे कई पहलू अनदेखे ही रह जाते हैं। इस लेख में हम उनकी हवेली या उनकी शायरी का नहीं बल्कि उनके एक फोटो का जिक्र करेंगे, जो कैमरे से लिया गया था। सच तो यह है कि गालिब का बस एक ही ब्लैक एंड व्हाइट फोटो है जिसके आधार पर कलाकारों ने कई चित्र बनाए हैं। उस समय पिन-होल कैमरा नया-नया चला था। यह उन दिनों की बात है कि जब अवध के

नवाब वाजिद अली शाह और गालिब के मित्र बहादुर शाह जफर के फोटो भी खींचे गए थे।
गालिब का यह पहला और अंतिम फोटो दिल्ली के फोटाग्राफर रहमत अली ने खींचा था। खेद का विषय है कि रहमत अली के बारे में आज किसी को कुछ पता नहीं। गालिब के जीवन में उस फोटोग्राफर का, मुंशी नवल किशोर के छापेखाने का या उस दुकानदार का, जिससे वे कलम और स्याही खरीदा करते थे, अपना ही महत्व है। जिस समय रहमत अली ने यह फोटो खींचा था, भारत में कैमरे का चलन नहीं था, मगर ब्रिटेन में इसकी ईजाद हो चुकी थी और किसी व्यक्ति ने इसे भारत में इम्पोर्ट किया था। यह फोटो संभवत: 27 मई 1868 अर्थात गालिब के देहांत से 9 महीने पूर्व खींचा गया था। उनके मित्रों द्वारा इस बात का प्रमाण भी मिलता है कि गालिब के पास इस फोटो की बहुत सी प्रतियां थीं, जो उन्होंने अपने दोस्तों और चाहने वालों को बांटी थीं। इसकी मूल प्रतियों में से एक मौलाना आजाद नेशनल लाइब्रेरी (हबीब गंज कलेक्शन ऑफ खान बहादुर बशीरुद्दीन) में सुरक्षित थी जिसे गालिब के एक मित्र साहिब-ए-आलम मारहर्रवरी ने भेंट की थी। बकौल नजमुल हसन गालिब का फोटो एक लिफाफे पर छपा हुआ था जिसके ऊपर एक आने के डाक टिकट लगे हुए थे और यह बाग पुख्ता के मूसा जैदी के पास था। जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में खान बहादुर बशीरुद्दीन की पुस्तकें और पांडुलिपियां रखी गईं तो यह फोटो भी वहां पहुंचा जिसको वास्तव में मौलाना आजाद को दिया गया था। यह फोटोग्राफ रजिस्टर्ड डाक से अलग से भेजा गया था।

लिफाफे के ऊपर टिकटों पर जो कैंसिलेशन की मुहर है उसमें 27 तो सफाई से पढ़ने में आता है 68 भी मगर महीना या तो 5 था या 6। विद्वानों की राय है कि यह पांचवां महीना अर्थात मई था। वैसे लिफाफे के ऊपर जो इबारत लिखी थी, वह थी 'मारहरा, हजरत साहिब-ए-आलम साहब मुद्दा जिल्लहुलाली ग़ालिब 5'। यह इस बात का प्रमाण है कि रहमत अली ने यह फोटो मई 1868 को लिया था। इसका प्रमाण 28 मई 1869 को दिल्ली के उस समय के प्रसिद्ध दैनिक 'अकमल-उल-अखबार' में छपे एक विज्ञापन से भी मिलता है, जो कुछ इस प्रकार से था: 'आला हजरत असदुल्लाह खां गालिब, बहुत सी खिलतों व सम्मान पाने वाले शायर का फोटो खिंचवाना हमारा सौभाग्य था। यदि कुछ लोग इस फोटो की एक कापी मंगाना चाहें तो हमें वे दो रुपए के डाक टिकट किसी लिफाफे में रख कर लाला बिहारी लाल, अकमल-उल-मताबे, दिल्ली भेज दें। फोटोग्राफ वीपी द्वारा जल्दी प्राप्त होगा।'
इस विज्ञापन की तिथि हमें बताती है कि गालिब का यह फोटो हर हाल में 28 मई, 1868 से पहले का ही खिंचा हुआ है। यही फोटो लखनऊ की पत्रिका 'मेयार' के जनवरी-फरवरी 1910 के संस्करण में प्रकाशित किया गया। पत्रिका के संपादक हकीम सैयद अली मोहसिन अब्र ने एक नोट में लिखा: 'यह नवाब सैयद बहादुर हुसैन खान अंजुम निशापुरी की मेहरबानी थी कि गालिब का फोटो मुझे मिला। वास्तव में उन्हें यह फोटो जयपुर से ख्वाजा कमरुद्दीन खां राकिम ने दिया जो कि गालिब के एक संबंधी थे। उन्होंने इस बात की ओर इशारा किया था कि गालिब के कुछ शिष्यों ने उन्हें उनके देहांत से कुछ समय पहले समझा-बुझा कर फोटो खिंचवाने पर राजी कर लिया था। लोग बताते हैं कि उस समय गालिब अपने बिस्तर पर लेटे थे और उन्हें सहारा देकर बिठाया गया ताकि यह फोटो खिंच जाए।'

फिरोज बख्त अहमद (नवभारत टाइम्स से साभार)

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