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6 मार्च 2012

हम डूबे तो क्या, वह भी तो डूबा!


रंजन कुमार सिंह>>>

मेरी एक आँख फोड़ दो ताकि पड़ोसी की दोनों आँखे फूट जाएँ. भारतीय राजनीती की धारा कुछ ऐसी ही है. हारने के बाद बेशक सभी पार्टियां कहती हैं कि यह वक्त उनके लिए आत्मावलोकन और आत्मालोचन का है, पर सच यही होता है कि उनकी नज़र अपने पड़ोसी की आँखों पर ही होती है कि वह फूटी या नहीं? हाल का चुनाव इसका जीता-जागता नमूना है. भारत देश महान!

उत्तर प्रदेश में सालों से फिसड्डी रहने के बावजूद दोनों बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा को संतोष है तो यह कि हम डूबे तो क्या, दूसरा भी तो डूबा! भाजपा के नेता-प्रवक्ता कहते चल रहे हैं कि बड़े चले थे युवराज को घर-घर, गली-गली लेकर. नतीजा क्या रहा, वही ढाक के तीन पात. दूसरी तरफ कांग्रेसियों का कहना है कि उनका क्या, उन्होंने तो जात भी गंवाया और भात भी न पाया. कांग्रेस खुश कि पंजाब में सरकार नहीं बनी तो क्या, उत्तराखंड में तो उसे सरकार बनाने से रोक दिया. भाजपा खुश कि उत्तराखंड गया तो क्या, गोवा तो उससे छीन लिया. क्या खूब है यह आत्मावलोकन! क्या खूब है यह आत्मालोचन! वाह रे मेरा इंडिया!

दोनों ने ही अपनी-अपनी जीत के लिए क्या-कुछ नहीं किया? एक ने अकलियत को भरमाने के लिए उन्हें बड़े-बड़े सपने दिखाए तो दूसरे ने रातों-रात उसकी बराबरी करने के लिए गुंडे-बदमाशों तक को अपने साथ मिलाने से गुरेज़ नहीं किया. यहाँ विकास का मतलब है टके सेर चावल, और मुफ्त की बिजली. जनता को मुफ्तखोर बनाकर ये पार्टियां देश का विकास करने की डींगें झाड़ती हैं. छत्तीसगढ़ में जब तक चाउर वाले बाबा हैं, मजे लूट लो; बिहार में जब तक विकास कुमार हैं, साइकिल चढ़ लो. वाह रे जम्हूरियत!

न तो किसी पार्टी को इस बात की चिंता है कि वह लोगो को चावल खरीदने लायक बनाये, न ही किसी नेता को इस बात से मतलब कि साइकिलों का हो क्या रहा है. भारत का राजस्व मानो कुबेर का खज़ाना है, अपना क्या, लुटाए जाओ. अपना होता तो धेला न निकलता जेब से. वोट खरीदने के अपने-अपने तरीके है. कोई दारु की गंगा बहा कर, वोट बटोरता है तो कोई सरकारी खजाने को ही बाप की जागीर समझ बैठता है. चुनावों के बाद खुद को ठगी महसूस करने वाली जनता भी अब चालाक हो गई है. उसके लिए तो भागते भूत की लंगोट भली. जो मिलता है, लेतो रहो. कल किसने देखा है. वाह रे आवाम!

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