राकेश माथुर<><><><><
कई राज्यों में एक अभिय़ान सा चल पड़ा है। बड़े-बड़े होर्डिंग लगे है..। कहीं मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कह रहे हैं तो कहीं छत्तीसगढ़ के मुख्यममंत्री रमन सिंह। कहीं गुजरात के मुख्यमंत्री तो कहीं बिहार सरकार। मुझे लगता है क्या वाकई हम सही संदेश दे रहे हैं
बेटी का होना जरूरी है। बेटी को जन्म लेते ही मार देने वालों को शिक्षा देना जरूरी है। लेकिन क्या इसके लिए मेरे जैसे उन लाखों लोगों का दिल दुखाना जरूरी है जिन्होंने अपनी बेटी के साथ 16 साल गुजारे, उसके हर सुख दुख में साथ दिया। और एक दिन सरकारी लापरवाही का कोई प्रतीक ट्रैक्टर उसे टक्कर उसे टक्कर मार कर चला गया। तीन दिन वह अस्पताल में जिंदगी और मौत के मुंह में झूलती रही और 5 मार्च 2006 को सुबह चार बजकर 20 मिनट (समय पर गौर करें) हमें छोड़ कर न जाने किस दुनिया में चली गई।
यहां जो अव्यवस्थाएं देखने को मिलीं क्या सरकार उन्हें ठीक कर पाएगी। राजस्थान के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एसएमएस के संबंधित विभाग के प्रमुख विदेश यात्रा पर थे। अस्पताल उन जूनियर डाक्टरों के हवाले था जो जब मन में आया हड़ताल की धमकी देते रहते हैं। उनमें से एक जूनियर डाक्टर ने बेटी को बचाने के लिए वाकई बहुत मेहनत की। वह खुद दौड़ कर खून लाया। उसने कहा आपको इतनी जल्दी नहीं मिलेगा। उसके बाद बेटी को न जाने कितनी बोतलें खून, प्लेटलेट सेल्स, प्लाज्मा और न जाने क्या क्या चढ़ा। सबके बाकायदा पैसे पहले लिए गए, इलाज बाद में हुआ। बहुत से जूनियर डाक्टरों ने बदतमीजी भी की। इलाज में कोताही देख हमारे एक रिश्तेदार डाक्टर को मारने भी दौड़े। मैंने रोका।
दुर्घटना का सबसे बड़ा पहलू यह कि दुर्घटना के बाद कुछ लोग बेटी को पास के अस्पताल ले गए। अस्पताल ने कहा दुर्घटना हुई है एसएमएस ही ले जाना पड़ेगा। वहां से करीब 18 किलोमीटर दूर। पत्नी को खबर मिली। वह घटनास्थल की ओर दौड़ी। रास्ते में एक व्यक्ति मोबाइल फोन पर बात करता जा रहा था, उसके हाथ से फोन छीना, मुझे फोन किया। पूरी बात सुनकर उस व्यक्ति ने भी पूछा कि वह क्या मदद कर सकता है। अलबत्ता उस अस्पताल ने अपनीं एंबुलेंस हमें दी, ढाई सौ रुपए भी लिए।
अस्पताल में मदद को कई लोग आए। पहला खून पत्रकार साथा आदिदेव भारद्वाज ने दिया। उसके बाद पोद्दार इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर आनंद पोद्दार अपने संस्थान के कई विद्यार्थियों को लेकर पहुंचे। उन्होंने खून के बदले रक्तदान किया। अस्पताल की तरफ से एक बूंद खून नहीं मिला।
बेटी की मौत की खबर अखबार में छपी। उस समय की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने मुझे फोन पर शोक संदेश दिया। उनके सचिव मुझसे एक फार्म पर दस्तखत करवा कर ले गए थे कि इलाज के लिए सरकारी कोष से मदद दिलवाएंगे। आज तक नहीं मिली। मकान बेचना पड़ा। शायद वह होता ही इसलिए है।
हां एक बात और पुलिस ने रिपोर्ट लिखी..तीन दिन बाद जबकि अस्पताल ने उसे पहले ही दिन सूचना दे दी थी। वह थाना..आईएसओ सर्टिफिकेट वाला है। उसने रिपोर्ट दी कि उस दिन कोई ट्रेक्टर उस तरफ से गुजरा ही नहीं था..जबकि सामने एक स्कूल के बच्चों ने ट्रेक्टर को वहां देखा था। पोस्ट मार्टम रिपोर्ट में दुर्घटना का जिक्र नहीं था..लिखा था ट्रामा (शा`क से मौत हुई)
आज मेरा एक बेटा है। बेटी से छह साल छोटा। वह उस समय साथ में था, अलग साइकिल पर। उसने वह घटना अपने सामने देखी। आज तक वह हमसे उसके बारे में बात नहीं करता कि कहीं हमें दुख न पहुंचे। उस दुर्घटना के बाद काफी समय तक वह बस में या ट्रेन में या प्लेन में खिड़की वाली सीट पर बैठता है तो उसकी आंख से आंसू निकलते हैं। कारण.. दोनों बहन भाई खिड़की के किनारे वाली सीट के लिए झगड़ते थे। अब झगड़ने वाला कोई नहीं। कार में कहीं जाते हैं तो एक सीट खाली रह जाती है। छह साल हो गए डायनिंग टेबल पर बैठ कर खाना नहीं खाया क्योंकि एक चेयर खाली दिखती है।
बेटी है तो कल है चिल्ला चिल्ला कर कहने वालों उस अकेले बचे बेटे की भी तो सोचो। उन लोगों की भी सोचो जिनके एक ही संतान है, वह भी बेटा। अगली बार एक अकेले बेटे की दास्तान।
सोचिए और बताइए कि क्या यह कहना सही है ...बेटी है तो कल है... या यूं कहें ...बेटी को जन्म से पहले मारने वालों हत्या का पाप अपने सिर न लो। ...बेटी को भी दुनिया देखने का हक है। या कुछ और
यह करना जरूरी है
अस्पतालों को सुधारना
डाक्टरों को अस्पताल पहुंचाओ, मजबूर करो कि वे काम करें
हड़ताल करने वाले या मरीजों की बेकदरी करने वाले डाक्टरों के रिजस्ट्रेशन कैंसिल किए जाए
मरीज का इलाज पहले हो, पैसा जमा होने तक इलाज न रोका जाए
जिन अस्पतालों से किसी प्रसूता का इलाज न हो या जिन अस्पतालों के बाहर किसी मां को अपनी संतान को जन्म देना पड़े, ऐसे अस्पतालों का बंद हो जाना ही बेहतर है।
डाक्टरों की धमकियों के आगे सरकार झुके नहीं
हड़ताल पर जाने वाले डाक्टरों के रजिस्ट्रेशन कैंसिल कर दिए जाएं
मेडिकल में आने से पहले लोगों से लिखवा लिया जाए कि उन्हें डाक्टरी करनी ही पड़ेगी, लापरवाही या धमकी देने पर जिंदगी भर डाक्टरी नहीं पाएंगे।
मेडिकल कालेजों पर अंकुश लगाया जाए..मजाक नहीं है मेडिकल का पेशा.. इसे गंभीरता से लिया जाए
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