वकीलों के मुताबिक इस फैसले का सहारा हर वो माता-पिता नहीं ले सकते हैं जिनके बच्चे उनकी इजाज़त के बग़ैर घरों में रह रहे हैं।
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मुंबई I अगर आप बालिग़ हैं और यह सोचते हैं कि आप अपने माता-पिता के घर में अपनी मर्ज़ी से जब तक चाहें रह सकते हैं तो अब शायद यह सोच सही नहीं. बॉम्बे हाई कोर्ट के मुताबिक बालिग़ होने के बाद बच्चे अपने माता-पिता की इजाज़त के बग़ैर उनके साथ नहीं रह सकते.
अदालत ने कहा कि माता-पिता अपने नाबालिग़ बच्चों की परवरिश के ज़िम्मेदार हैं लेकिन बच्चों के बालिग़ होने के बाद उन्हें अपने माता-पिता के घर में रहने का कोई क़ानूनी अधिकार नहीं है। वो अपने माता-पिता की इजाज़त से ही उनके घर में रह सकते हैं।
बॉम्बे हाई कोर्ट ने 35 वर्षीय कश्मीरा रॉबर्ट लोबो की याचिका रद्द करते हुए कहा की उनके 73 वर्षीय पिता सोली बहादुरजी बातिवाला के किराए के घर में रहने का उन्हें कोई क़ानूनी अधिकार नहीं.
बातिवाला दादर में पारसी कालोनी में एक किराए के मकान में बरसों से रहते चले आ रहे हैं. उनकी बेटी का कहना है की इस किराए के घर में उन्हें भी रहने का अधिकार है.
किराए का घर उनकी पत्नी के नाम पर था जिनका 1980 में देहांत हो गया था। इसके बाद घर के असली किराएदार बातिवाला हो गए थे. लेकिन उनकी बेटी कश्मीरा के अनुसार वो क़ानूनी तौर पर अपने पिता के घर में रहने का अधिकार रखती हैं. इसी अधिकार को हासिल करने वो बॉम्बे हाई कोर्ट गई थीं.
'क़ानूनी बाध्यता नहीं'
जस्टिस जेएच भाटिया ने अपने फैसले में कहा कि जहाँ तक महिलाओं के अधिकार का सवाल है एक बार उनकी शादी हो जाती है तो वो अपने पति के परिवार की सदस्य हो जाती हैं और अपने माता पिता के घर में केवल एक मेहमान की तरह होती हैं।
हालांकि मुंबई के वकीलों के अनुसार यह मुक़दमा ‘किराएदार के अधिकारों’ से संबंधित क़ानून पर आधारित है और जज का फैसला किराएदार के अधिकार की हैसियत से था.
वकील हर्ष लाल के अनुसार इस फैसले का सहारा हर वो माता-पिता नहीं ले सकते हैं जिनके बालिग़ बच्चे उनके घरों में उनकी इजाज़त के बग़ैर रह रहे हैं.
वकील स्वप्निल खत्री कहती हैं, ''यह केवल जज की एक टिप्पणी है और इसे क़ानूनी तौर पर मानने की बाध्यता नहीं है. इसके इलावा यह जज के फैसले का ख़ास हिस्सा नहीं था. अगर कोई माता पिता अपने बच्चों को अपने घर के किराएदार की हैसियत से बेदख़ल करना चाहते हैं तो वो उन्हें ज़बरदस्ती निकाल नहीं सकते.''
स्वप्नील खत्री के मुताबिक उन्हें ऐसा करने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाना पड़ सकता है।
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यह केवल जज की एक टिप्पणी है और इसे कानूनी तौर पर मानना बाध्य नहीं है. इसके इलावा यह जज के फैसले का ख़ास हिस्सा नहीं था. अगर कोई माता पिता अपने बच्चों को अपने घर के किरायेदार की हैसियत से बेदख़ल करना चाहते हैं तो वो उन्हें ज़बरदस्ती निकाल नहीं सकते."
वकील स्वप्निल खत्री
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