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4 फ़र॰ 2013

विकास दर के घोड़े पर सवार महंगाई

महंगाई ने देश की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को जीवनरक्षक बुनियादी सुविधाओं से वंचित कर दिया है। इस वजह से गत कुछ वर्षों में आम जनता का एक बड़ा वर्ग भुखमरी या कुपोषण की चपेट में आया है। महंगाई की दर लंबे समय से सात प्रतिशत के ऊपर बनी हुई है। 

निरंतर बढ़ी महंगाई ने पुरानी गरीबी रेखा को अप्रासंगिक कर दिया है। जनता त्राहि-त्राहि कर रही है, फिर भी सरकार के लिए यह कोई मुद्दा नहीं है। इस मुद्दे पर केंद्र सरकार न सिर्फ अंधी व बहरी हो चुकी है, बल्कि अब भी लगातार महंगाई बढ़ाने वाले कदम उठाए जा रही है। सवाल उठता है कि वर्तमान सरकार की चिंता के केंद्र में महंगाई का मुद्दा क्यों नहीं है? 

वह इतनी लाचार एवं बेबस क्यों है? महंगाई बढ़ने के वास्तविक कारण क्या हैं तथा सरकार उनसे निपटने में किस हद तक सक्षम है? क्या आने वाला समय आम जनता को महंगाई से राहत दे पाएगा? इन सवालों का जवाब जानने के लिए हमें भारतीय अर्थव्यवस्था एवं राजनीति की कुछ वर्तमान सचाइयों से रूबरू होना पड़ेगा।

सरकार की वर्तमान प्रवृत्ति बहुराष्ट्रीयकरण की है और चाहे जो हो जाए, वह अपने इस रुख पर तनिक भी समझौता करने को तैयार नहीं है। इस समय आर्थिक विकास दर सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। यही वजह है कि महंगाई की तुलना में कुछ अन्य मुद्दे जैसे-बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश, खुदरा क्षेत्र में एफडीआई, वायदा कारोबार में कृषि जिंसों को शामिल करना, शेयर बाजार को विभिन्न विदेशी मुद्राओं में वायदा कारोबार की अनुमति देना, अमेरिकी सरकार या अमेरिकी मीडिया एवं कॉरपोरेट ताकतों की नजर में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की रेटिंग सुधारना आदि सरकार की प्राथमिकता सूची में काफी ऊपर रहे हैं।

इनमें से एक भी मुद्दा ऐसा नहीं है, जिसका महंगाई को हवा देने में प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान न हो। जाहिर है, सरकार की प्राथमिकता महंगाई को कम करने के बजाय बढ़ाने की है, क्योंकि इससे मंदीग्रस्त अर्थव्यवस्था को गति मिलती है। सचमुच, महंगाई तो आर्थिक विकास दर एवं एफडीआई (अर्थात बहुराष्ट्रीयकरण) के घोड़े पर ही सवार है। दुर्भाग्य है कि महंगाई अब विपक्ष के लिए भी ज्यादा महत्व का मुद्दा नहीं रहा। इस मुद्दे पर सरकार और विपक्ष की स्थिति लगभग एक जैसी ही है। सिक्के भले ही दो हों, पर पहलू दोनों के एक ही हैं। 

वास्तव में महंगाई के मांग-आपूर्ति आधारित परंपरागत सिद्धांत अब धराशायी हो गए हैं और इसका घटना-बढ़ना बहुत कुछ वैश्विक कारकों से तय होने लगा है। सरकार ने कुछ वर्षों पहले कृषि जिंसों को वायदा कारोबार के लिए खोल दिया। इससे कृषि जिंसों की महंगाई निरंतर बढ़ती गई है। सरकार ने सेबी को यूरो, पाउंड और येन जैसी अन्य विदेशी मुद्राओं में भी वायदा कारोबार की अनुमति पहले ही दे दी थी। अतः कृषि जिंसों की कीमतों पर अनावश्यक दबाव बनना स्वाभाविक था। देखते-देखते आलू, टमाटर, प्याज, चना, मूंगफली, राजमा आदि के मूल्य आसमान छूने लगे। अब तो देश की अर्थव्यवस्था में कभी भी हलचल पैदा कर देना सटोरियों के हाथ में है। 

धीरे-धीरे देश की पूरी अर्थव्यवस्था के नियामक की भूमिका में अंतरराष्ट्रीय सटोरिये आते जा रहे हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री केन्स ने सट्टाबाजारी से उत्पन्न पूंजीवादी अराजकता से बचने के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप का सुझाव दिया था। उन्होंने वित्तीय पूंजी को कभी अंतरराष्ट्रीय रूप न लेने देने की वकालत करते हुए राष्ट्र-राज्यों को अपनी सीमाओं में पूरे हस्तक्षेप करने की बात कही थी, लेकिन आज सब कुछ उलट गया है। 

सट्टाबाजारी एवं अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी सरकार की पकड़ से बाहर होकर खुद सरकार बनाने-बिगाड़ने, उसकी रेटिंग या भविष्य तय करने की भूमिका में है। आलम यह है कि अंतरराष्ट्रीय सटोरियों की भूमिका निरंतर मजबूत हो रही है और सरकार के सभी बड़े फैसलों पर उनका प्रभाव स्पष्ट तौर पर दिख रहा है। दूसरी ओर, केंद्र सरकार वायदा कारोबार को और अधिक अधिकार देने की बात पर अड़ी है। लिहाजा इस पूरे परिदृश्य का आकलन कर महंगाई नियंत्रित करने में सरकार की सीमाओं या मजबूरियों को सहज ही समझा जा सकता है। 

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